झुग्गी – झोपड़ों में रहने वाले बच्चे प्राय हीन भावना की दृष्टि से देखे जाते हैं, लेकिन कहावत है कि “कमल कीचड में ही खिलते हैं” और इन्ही शब्दों को सार्थक कर दिखाया है दिल्ली की झोपड़ पट्टी में रहने वाले इन बालकों ने, जो अपना निजी समाचार पत्र प्रकाशित कर अपनी अलग पहचान बना चुके हैं. ‘बालकनामा’ और ‘चिल्ड्रन वॉइस’ नाम से प्रकाशित होने वाला यह अखबार पहली बार 35 बच्चों के सहयोग से प्रकाशित हुआ था, जो आज हजारों लोगों की पसंद बन गया है.
बालकनामा छोटी बस्ती में रहने वाले बालकों तथा युवाओं की दयनीय स्तिथि का मार्मिक चित्रण प्रस्तुत कर देश के लोगों को उनके वास्तविक हालातों से रूबरू करता है. एक समाजसेवी संगठन ‘चेतना’ के सहयोग से प्रकाशित होने वाले इस समाचार पत्र के सम्पादन हेतु उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, यूपी और हरियाणा जैसे राज्यों के अनेक बच्चे इसमें शामिल हो रहे हैं जो अपने क्षेत्र के गली कूँचों में रहने वाले बच्चों के हालतों को कहानी के जरिये प्रस्तुत करते हैं.
लगभग 10,000 बच्चे अब इस कड़ी में जुड़ चुके हैं, जो इसके त्रिमासिक संपादन हेतु कहानी, कविता, वास्तविक तथ्य और इंटरव्यू जैसी सामग्री जुटाते हैं. जहाँ एक तरफ बस्तियों में रहने वाले बालक चोरी चकारी, ड्रग्स और पॉकेट बाजी की हरकतें करते नज़र आते हैं, वहीँ बालकनामा समाचारपत्र के लिए काम करने वाले बच्चे रोज इससे सम्बंधित विषय पर परिचर्चा के लिए एकत्र होते हैं, जो अपने-अपने एरिया से जुडी ख़बरें इकट्ठी करते हैं.
दिल्ली में लगभग 14 बाल रिपोर्टर हैं, जो इसके लिए खबरें बनाते हैं. इनके अलावा अनेक ऐसे रिपोर्टर काम करते हैं, जो खुद लिख नहीं सकते और रिपोर्टर बातूनी रिपोर्टर के नाम से प्रसिद्ध ये बच्चे अपने सम्बंधित रिपोर्टर को जानकारी प्रदान करते हैं जिसके ऊपर खबर बनायीं जाती है.
19 साल की शन्नो बालकनामा अखबार की चीफ एडिटर हैं, जो लोगों की अनसुनी कहानी को शब्द प्रदान कर इसमें स्थान देती हैं. इससे जुड़े कुछ बच्चों के अनुसार – “सामान्य रूप से हमारी मन की बात सुनने वाला कोई नहीं होता, हमको नीचे दर्जे का समझकर समाज में हमको अनदेखा किया जाता है और बालकनामा हमारी आवाज़ को लोगों तक पहुँचाने का एक जरिया है. यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है जहाँ पर हम अपने मन के विचार खुल कर व्यक्त कर पाते हैं”.
इस समाचारपत्र को अधिक से अधिक लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से इसकी कीमत सिर्फ 2 रूपये रखी गयी है. इसके सम्पादन का सारा ख़र्च चेतना नाम की संस्था वहन करती है. वास्तव में झुग्गियों में रहने वाले बच्चों का यह कार्य उनसे जुडी बाल -अपराध बाल – मजदूरी जैसी समस्याओं से निपटने का एक विकल्प है…Next
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