आर्थिक उदारीकरण के बाद के बाद दिल्ली सिर्फ तेजी से बदली ही नहीं फैली भी. शहर फैलकर गांवों में घुस आया जिसने न सिर्फ गांवों के रंग-रोगन बल्कि उनकी आत्मा, उनके डीएनए तक बदल डाले. दिल्ली की सीमा से सटा गांव असोला-फतेहपुर बेरी की आय का मुख्य स्रोत कभी कृषि हुआ करता था. लेकिन आज यह गांव दिल्ली एनसीआर में उग आए सैकड़ों क्लब, पब, होटल, सिनेमाघरों आदि को बाउंसर सप्लाई करने के लिए जाना जाता है.
गांव के अखाड़े के मुख्य पहलवान विजय कहते हैं कि, “इस गांव में शायद ही कोई लड़का होगा जो जिम नहीं जाता होगा.” उनका कहना है कि, “सभी लड़के कड़ी मेहनत करते हैं और अपने शरीर का ख्याल रखते हैं. कोई भी यहां शराब नहीं पीता और तंबाकू का सेवन नहीं करता.” ज्यादातर लड़के बेहद कम उम्र में ही पहलवानी के पेशे में उतर आते हैं, इस उम्मीद से की एक दिन वे ओलंपिक में पहुंचेंगे लेकिन अगर वे इसमें असफल होते हैं तो बाउंसर बनने का विकल्प उनके सामने हमेशा खुला रहता है.
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उदाहरण के लिए नवजवान पहलवान केशव तंवर, अपना अधिकांश समय जिम में बिताते हैं. केशव का कहना है कि, “मुझे इससे कोई फर्ख नहीं पड़ता कि आगे चलकर मुझे और कौन सी नौकरी मिलेगी. मैं एक बांउसर बनना चाहता हूं. बाउंसरों का शरीर फिट रहता है और मैं भी चाहता हूँ कि मेरा शरीर फिट बना रहे.”
यह गांव बाउंसर पैदा करने वाली फैक्ट्री के रूप में करीब 15 साल पहले उभरना शुरू हुआ. विजय पहलवान बताते हैं कि एक सुबह वे गांव के अखाड़े में रियाज कर रहे थे. उनके पास एक पब का मालिक आया और नई दिल्ली में एक शादी समारोह के लिए 5 पहलवानों की मांग की जिसके लिए वह 10 हजार रूपए देने को तैयार था. उस समय यह काफी बड़ी रकम थी और गांव के लड़के इसके लिए झटपट तैयार हो गए और तब से यह सिलसिला चल पड़ा.
आज असोला के बाउंसरों को 1,500 रोजाना दिया जाता है. वे महीने के 30,000-50,000 तक कमा लेते हैं… Next…
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