अधनंगे जिस्मों की देखो, लिपीपुती-सी लगी नुमाइश़ होती है,
लार टपकते चेहरों को कुछ शैतानी करने की ख़्वाहिश होती है.
क्रिकेट को फटाफट देखने की ख़ुमारी है ही कुछ ऐसी. कोई इसे देखता है सिर्फ देखने के लिये, कोई देखता है पैसा बढ़ाने के लिये और कोई इसे देखता है ड्यूटी पर होने के कारण. ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले विवश हैं. पुलिसवाले स्टेडियम में तैनात तो होते हैं अपने बैंक ख़ातों को तेजी से बढ़ाने के लिये पसीना बहाने वाले खिलाड़ियों और क्रिकेट के बहाने “सब कुछ” देखने आने वाले आशावान दर्शकों की सुरक्षा के लिये, लेकिन वहाँ खड़े-खड़े उनकी नज़रें भी फिसल ही जाती है.
फिसले भी भला क्यों ना! लिपस्टिक, पाउडर से पुती अधनंगी ज़िस्में रंग-बिरंगे कपड़ों में चौके-छक्के लगने पर जब उछलती-कूदती है तो पहली बार आईपीएल मैच देखने वालों को क्रिकेट मैदान पर गाँव के मेले में “लहरिया लूटअ ए राजा” के तर्ज़ पर आर्केस्ट्रा देखने का भ्रम हो जाता है. चौंकन्नी नज़रें ऊब जाती है और घंटों खड़े पैर थक जाते हैं. आख़िर एक सीमा होती है बल्ला भांजने वालों को देखते रहने की?
हालांकि, इसमें उनका कोई दोष नहीं है. इसमें दोष उन शब्दों का है जो रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर के निर्देशक ने कुछ साल पहले फरमाया कि, “बिना चीयर गर्ल्स के आईपीएल केवल रणजी ट्रॉफी है.”कलर्ड और थ्री डी के समय में रंगहीन रणजी ट्रॉफी को झेलने का साहस किसी के पास नहीं है. उधर मौसम की लुका-छिपी से किसानों की फसलों पर असर हुआ है लेकिन पैसे, रोमांच, व्यवसाय, की बारिश में सराबोर कर देने वाले आईपीएल ने लोगों को समझा दिया है कि चिंता चिता के समान है. इसलिये कल की चिंता से मुक्त भारतीय अब “खटैक” के भरोसे रहना सीख रहे हैं.Next…..
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