आस्तीक वाजपेयी की किसी कविता की ये पंक्ति ‘आदमी कमतर नहीं होता ज़ुबाँ से, रंग से’ अपनी प्रासंगिकता पर मुस्कुरा उठेगी जब वह उस व्यक्ति के ज़ज्बे के बारे में पढ़ेगी जिसने किसी बुलंदी को छुआ नहीं! सुनने में अटपटा लग सकता है क्योंकि उस व्यक्ति ने बुलंदियों को अपने ज़ज्बे से शिकस्त दे दी है. एक ऐसा ज़ज्बा जो उत्साह से लबालब है और दुनिया से बेफ़िक्र दुनियावालों की फ़िक्र करता हुआ.
तस्वीर पुरानी है लोक मीडिया पर देखी गयी. लेकिन यह ऐसी तस्वीर है जो करोड़ों लोगों के लिये मिसाल है. तस्वीर में नजर आ रहा व्यक्ति वो हैं जिन्होंने अपने जीवन में लड़ाईयाँ लड़ीं हैं. उनकी पहली लड़ाई उनके किस्मत से थी. किस्मत ने उनके शरीर से दोनों हाथों को छीन लिया. शायद, किस्मत उन्हें बेबस देखना चाहता हो! लेकिन उन्हें तो धारा के विपरीत बहना ही पसंद था. सो उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी.
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पढ़ाई के साथ नवीनतम प्रौद्योगिकी को अपना हमसफर बनाया. लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स में दाखिला पाया और अमर्त्य सेन के साथ काम करने का अवसर नहीं चूके. अर्थशास्त्री के रूप में स्वयं को स्थापित कर चुके समीर घोष ने विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ और योजना आयोग के साथ काम किया है. पुणे में रहनेवाले घोष ‘राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन’ के सलाहकार के बतैर काम कर रहे हैं.
पैरों से भोजन करना, लैपटॉप चलाना, दिन के सारे काम निपटाना यह हाथ वाले लोगों के लिये असहज होगा लेकिन उनके लिये यह केवल दिनचर्या है. चेहरे पर अदम्य आत्मविश्वास उनकी सफलता की कहानी को व्यक्त करने के लिये पर्याप्त है.
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समीर घोष वैश्विक समुदाय के हीरे हैं. वो हीरा जो तापों की भीषण ऊष्मा को झेलते हुए वर्तमान अवस्था को प्राप्त करता है. इस अवस्था में वह लोगों के लिये स्वयं को आकर्षक दिखाने की वस्तु बन जाती है. ऐसे ज़ज्बे समाज के अन्य लोगों के लिये प्रेरणा के स्रोत का काम करती है.Next…
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