कुतुब मीनार के पास खड़ी इस खंडहर को देखकर अक्सर वहाँ घूमने जाने वाले लोग इस भ्रम में रहते हैं कि यह मुगलकाल में बनी कोई अन्य इमारत है जो अब जर्जर हो चुकी है. बहुत कम लोगों को ही जानकारी होगी कि यह खंडहर एक मस्ज़िद है जो जमाली कमाली के नाम से जानी जाती है.
कहानियों की मानें तो सिकंदर लोदी के दरबार में सूफ़ी संत और प्रसिद्ध कवि जमाली को महत्तवपूर्ण स्थान प्राप्त था. इनकी पत्नी कमाली थी. सिकंदर लोदी के दरबार में इनका मान-सम्मान अत्यधिक था. प्रिय पत्नी कमाली की मृत्यु के बाद उन्होंने उनकी याद में मक़बरे का निर्माण कराया था. लेकिन जब स्वयं उनकी इहलीला समाप्त हो गयी तो मुगल बादशाह हुमायूँ ने उनकी याद में कमाली के मक़बरे के पास ही उनका मक़बरा बनवा दिया.
1528-29 में बनी इस मस्ज़िद की सीमायें कुतुब मीनार की सीमाओं से मिलती है. लेकिन जमाली-कमाली की ये मस्ज़िद जिन्नों की कहानियों को लेकर मशहूर है. लोगों का मानना है कि इस मक़बरें में पाँव रखते ही विभिन्न तरह की आवाज़ें आनी शुरू हो जाती है. ये आवाज़ें लोगों को मक़बरों की ओर बुलाती हैं. वहाँ घूम आये लोग यह भी बताते हैं कि ये आवाज़ें इन मक़बरों से आते हैं.
इस मस्ज़िद के बारे में एक धारणा यह भी है कि यहाँ जाने पर लोगों को एहसास होता है कि कोई और भी उनके साथ खड़ा है. कभी-कभी लोगों को लगता है कि किसी ने उनकी गर्दन पर साँस ली हो. एक खम्भे के पीछे से किसी का झाँकना, हँसने की आवाज़ आना और वहाँ पहुँचने पर किसी को वहाँ न पाना, जानवरों का चीखना, रौशनी का दिखना ये सारी ऐसी धारणायें है जिसके कारण लोग इस मस्ज़िद में जाने से डरते हैं.
सच चाहे जो भी हो लेकिन लोगों की धारणाओं या अनुभवों ने उन धारणाओं को जन्म दे दिया है जिसके कारण कुतुब मीनार के समीप होते हुये भी जमाली-कमाली की ये मस्ज़िद स्वयं को उपेक्षित महसूस जरूर करती होंगी.
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