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जहाँ हर ठुमके पर चलती है दना-दन गोलियां

एक ज़माना था जब परिवार या समाज में किसी भी उत्सव पर बड़े अरमान से लौंडा नाच करवाया जाता था. इस नाच की लोकप्रियता का आलम यह था कि जब कोई लौंडा अपने पुरे स्त्री वेश में मंच पर ठुमके लगाता तो शामियाने बंदूक की गोलियों से छलनी हो जाया करती थी. बिना लौंडा के गावं में शादियाँ नहीं होती थी. लौंडे के हर लोकप्रिय गानें पर दूल्हें का मामा, बहनोई, चाचा और गाँव के मुखिया जी के द्वारा 20 रुपया, 50 रुपया या 100 रुपया का नगद पुरस्कार देकर महफिल में वाह-वाही लुटते थे. किसी लड़के को स्त्री वेश में ठुमके लगाने से दर्शक इतने दीवाने हो जाते कि लौंडे को रुपया देने के बहाने उसके हाथ, दुपट्टा या आँचल तक को पकड़ने या छूने के लिए ललायित रहते.


Launda

बिहार का लौंडा नाच की खुमारी बिहार की राजनीति से लेकर फिल्मी दुनिया तक देखा गया है. बिहार में नेतागण अपने चुनावी प्रचार के लिए जगह-जगह इस नाच का आयोजन करते है. लालू यादव का लौंडा नाच से प्रेम जगजाहिर है. आरंभ से ही लालू अपने राजनीतिक आयोजनों में लौंडा नाच करवाते रहे हैं. पिछली बार उनकी परिवर्तन रैली के बाद भी पटना की सड़कों पर लौंडा नाच का जलवा बिखरा था.


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फिल्मी दुनिया में भी इस नाच को बहुत ही शुद्ध और मनोरंजक रूप में पेश किया है. प्रकाश झा ने अपनी चर्चित व राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म ‘दामुल’ में  ‘हमरी चढ़ल बा जवनिया गवना ले जा राजा जी…’ गीत के साथ लौंडा नाच का इस्तेमाल किया. इसके आलावा मशहूर फिल्म ‘नदिया के पार’ में ‘जोगीजी धीरे-धीरे, नदी के तीरे-तीरे…’ होली गीत में लौंडा नाच को बहुत ही मजेदार अंदाज में सामने लाया गया. वहीं अनुराग कश्यप को भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ के लिए भी लौंडा नाच की जरूरत महसूस हुई.



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पहले इस नाच को जनसामान्य के मनोरंजन के लिए सबसे बेहतरीन माध्यम कहा जाता था क्योंकि तवायफों के नाच को देखने का सामर्थ्य जनसामान्य में नहीं था. सामर्थ्यशाली राजा-महाराजा ही उन्हें अपने यहां मनोरंजन के लिए बुलाता था. तवायफों के बाद बाईजी का जमाना आया पर यह भी सामान्य लोगों से दूर ही रहा. इस पर भी जमींदारों और धनाढ्य लोगों का ही कब्जा हुआ. इस प्रतिरोध से नाच की एक शैली विकसित हुई. पुरुष ही स्त्री बन कर वंचितों का मनोरंजन करने लगे. इस विधा को लोगों ने “लौंडा नाच” का नाम दिया. इस नाच में सुल्ताना डाकु, लैला मजनु, सत्य हरिश्चन्द्र, अमर सिंह राठौड़, इत्यादि के पाठ खेले जाते हैं.


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समाज में अब लौंडा नाच हाशिये पर खड़ा है. किसी भी उत्सव या जलसे पर लोग नेपाल, बंगाल या भारत के किसी भी राज्य से लाई गई किसी बेबस लड़कियों को नचवाना ज्यादा पसंद करते हैं. बिहार में अब गिने-चुने ही लौंडा नाच मंडली बची है जो इस विधा को जिन्दा रखे हुए है पर वे भी खस्ताहाल हैं. नाच मंडली में अब कलाकार नहीं बचे हैं. वे गरीबी और बेरोजगारी के चलते बड़े शहरों में रोटी की तलाश में पलायन कर चुके हैं. गाँव में लौंडा नाच अब लोगों की स्मृति में ही सुरक्षित रह गई है. Next…


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