उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता….जिस मुल्क के लोग उसे मुसीबत में देख अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाते हैं. पढ़िए ऐसे ही एक व्यक्ति की कहानी जिसने मुल्क की रक्षा के लिए पाँच टन सोने दान कर दिए.
पाकिस्तान से वर्ष 1965 का युद्ध जीता जा चुका था. पाकिस्तान के नापाक मंसूबों का कुफल यह हुआ कि उसके दो टुकड़े हो गए…पाकिस्तान और बांग्लादेश. लेकिन उसी वक्त भारतीयों के शरीर की नसों में जश्न का उफान थोड़ा कम हो गया. कारण था चीन की ओर से युद्ध का सम्भावित खतरा.
सम्भावित युद्ध की स्थिति से निपटने के लिए धन की आवश्यकता थी. इससे निपटने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने राष्ट्रीय रक्षा कोष की स्थापना करने के साथ ही लोगों से इसमें दान देने की अपील की.
धन संग्रहण के उद्देश्य से उन्होंने हैदराबाद के सातवें निज़ाम हुज़ूर मीर ओस्मान अली खान से मुलाकात की और राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए उदारता से दान करने को कहा. निज़ाम ने बिना देरी किए अपने सहायकों को पाँच टन सोना दान करने को आदेश दिया. वर्ष 1965 में हैदराबाद के निज़ाम द्वारा दान किया गया पाँच टन सोना भारत के इतिहास में व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से किया गया सबसे बड़ा दान है. आज अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में पाँच टन सोने की कीमत करीब 1,500 करोड़ रूपए आँकी गई है.
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हालांकि, निज़ाम अपनी मितव्ययिता के लिए भी मशहूर थे. इसलिए सोना दिल्ली भेजते वक्त उन्होंने यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं किया कि, ‘हम सिर्फ सोना दान कर रहे हैं, अत: वे लोहे के बक्से वापस कर दिए जाएँ जिसमें रख कर यह दिल्ली भेजा जा रहा है.’ भारत सरकार ने उन बक्सों को वापस हैदराबाद भिजवा दिया.
उनकी मितव्ययिता की एक और कहानी मशहूर है.
शीत ऋतु के आगमन पर एक बार उन्होंने अपने सेवक को बाज़ार से 25 रूपए तक के कीमत वाली कंबल लाने का हुक्म दिया. सेवक ने पूरा बाज़ार छान मारा परंतु उसे 25 रूपए का कंबल नहीं मिला. वो खाली हाथ वापस लौट आया और निज़ाम से कहा कि बाज़ार में सबसे सस्ती कंबल 35 रूपए की है. निज़ाम ने नई कंबल खरीदने का इरादा त्याग दिया और पुराने कंबल से ही काम चलाने का निश्चय किया. कुछ ही घंटों में उन्हें बीकानेर के महाराज का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के लिए आर्थिक सहायता देने का निवेदन प्राप्त हुआ जिसे स्वीकारते हुए तत्काल ही उन्होंने एक लाख रूपए की सहायता दी.
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