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90 के दशक में दिल्ली में कुछ यूं बीतते थे हमारे दिन और शाम

80  और 90 के दशक वाली दिल्ली का रंग-रोगन हो चुका है. साँझ ढ़ल चुकी है. वो साँझ जिसमें सूर्य ढ़लने पर पिताजी के स्कूटर पर बैठ क्वालिटी की आईसक्रीम खाने इंडिया गेट के दरवा़ज़े को खटखटाने पहुँच जाया करते थे. वो साँझ जिसमें एनसीआर और मैट्रो का नामोनिशाँ न था. वो साँझ भी अब मयस्सर नहीं जब दोस्तों के साथ मस्ती करने के लिए पिताजी से उनके स्कूटर की चिरौड़ी करनी पड़ती थी. अगर आपको भी आती है याद उस समय की तो हम आपको ले जा रहे हैं उन दिनों और साँझों के छाया तले…..




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वो समय था सड़कों पर डबल-डेकर बसों का. हालांकि उनकी संख्या कम थी जो बमुश्किल बस पड़ावों पर रूकती थी. पर किसी बस के मिल जाने पर उसके प्रथम तल पर चढ़ना और शहर को ऊँचाई से देखना कितना रोमांचकारी होता था.




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सीपी जाकर विम्पी में बर्गर खाना….अहो…मज़ेदार.




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पूरी बाज़ार छान लेने के बाद निरुला की गर्म चॉकलेट खाना तो आदत सी थी.




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प्रगति मैदान का ‘अप्पू घर’ और ‘माय फेयर डेली राइड्स’ क्या कभी भुलाया जा सकता है? जनाब, ‘क्रिस्टोफर कोलम्बस’ तो नहीं भूल गए ना आप?




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सप्ताहांत में इंडिया गेट पर जाना और वहाँ ‘’क्वालिटी’’ या ‘’गेलॉर्ड’’ की आईसक्रीम खाना तो जैसे अनिवार्य था. किसी वजह से ऐसा नहीं करने पर अगला दिन सूना-सूना सा लगता था.




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पिकनिक और नौकायन के लिए क्या उस वक्त पुराना किला से मनपसंद जगह कोई थी?




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बहुत शोर करने पर भी सीपी से चाँदनी चौक तक फटफटिया की सवारी कितनी मज़ेदार होती थी!



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विद्यालय में अवकाश रहने पर दिल्ली ज़ू देखने जाना तो महीनों पहले से तय हो जाता था.




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रेलवे संग्रहालय में तस्वीर और तस्वीरें खींचना तो बनता ही था बॉस!




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पाइरेटेड सीडी के लिए पालिका बाज़ार और नेहरू प्लेस से बेहतर कोई विकल्प न होता था.



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ऑनलाइन शॉपिंग के प्रचलन में न होने के कारण दोस्तों के बीच महिपालपुर में ठंड के सबसे सस्ते कपड़ों के मिलने का शर्त लगाया जाता था.






विद्यालय प्रशासन पिकनिक पर बच्चों को दो जगहों पर तो ले ही जाता था. एक तो लोधी गॉर्डन और दूसरा बुद्ध जयंती पार्क.

अगर आपको लगता है कि 90 के दशक की दिल्ली के बारे में हम भूल रहे हैं कुछ, तो आप अपनी राय देकर उस कमी को पूरा कर सकते हैं.

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