महाभारत की गाथा में कुटिल भूमिका के लिए विख्यात शकुनि या यूं कहें कि कौरवों के ‘शकुनि मामा श्री’ जिन्हें कौरवों के शुभचिंतक के रूप में पूरे महाभारत में याद किया जाता है, वे दरअसल कौरवों के लिए एक दुश्मन की भूमिका निभा रहे थे। जी हां, शकुनि ने कौरवों का महाभारत के युग के दौरान एक बदले की भावना से साथ निभाया था। कौरवों को छल व कपट की राह सिखाने वाले शकुनि उन्हें पांडवों का विनाश करने में पग-पग पर मदद करते थे लेकिन उनके मन में कौरवों के लिए केवल बदले की भावना थी।
परंतु कौरवों ने ऐसा भी क्या किया था जो शकुनि उनसे बदला लेना चाहते थे…कौन थे शकुनि?
शकुनि गांधार नरेश राजा सुबल के पुत्र थे व उनकी बहन गांधारी का विवाह महाराज धृतराष्ट्र से हुआ था जिसके पश्चात उनका रिश्ता हस्तिनापुर से जुड़ा था। गांधारी से महाराज धृतराष्ट्र को 100 पुत्रों की प्राप्ति हुई थी जो आगे चलकर कौरवों के नाम से दुनिया भर में प्रसिद्ध हुए थे।
धृतराष्ट्र गांधारी के दूसरे पति थे !
हिंदू शास्त्र में ऐसे कई तथ्य हैं जिन पर विश्वास करना कई बार चुनौतीपूर्ण हो जाता है और यह भी कुछ ऐसा ही तथ्य है।
शास्त्रों के अनुसार शकुनि की बहन गांधारी का महाराज धृतराष्ट्र से पहले ज्योतिषियों के कहने पर एक बकरे से विवाह करवाया गया था। कहा जाता है कि गांधारी को किसी प्रकार के प्रकोप से मुक्त करवाने के लिए ही ज्योतिषियों ने यह सुझाव दिया था और फिर बाद में उस बकरे की बलि दे दी गई थी जिस कारणवश गांधारी प्रतीक रूप में विधवा मान ली गईं।
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कब पैदा हुई शकुनि के मन में बदले की वो आग
आखिर क्या था कौरवों के शकुनि मामा श्री के मन में जो वे कौरवों से अत्यंत घृणा करने लगे थे। क्या खुद कौरवों ने उन्हें ऐसा करने पर मजबूर किया था?
गांधारी एक विधवा थीं, यह सच्चाई जब महाराज धृतराष्ट्र व कौरवों के समक्ष आई तो वे बहुत क्रोधित हो उठे। धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन ने गांधारी के पिता राजा सुबल यानि अपने नाना को पूरे परिवार सहित कारागार में डाल दिया। कारागार में उन्हें खाने के लिए केवल एक मुट्ठी चावल दिए जाते थे। जब राजा सुबलको यहज्ञात हुआ कि यह उनके परिवार का विनाश करने की साजिश है तो उन्होंने यह निर्णय लिया कि वह एक मुट्ठी चावल केवल उनके सबसे छोटे पुत्र को ही दिये जाएं ताकि उनके परिवार में से कोई तो जीवित बच सके। राजा सुबल के सबसे छोटे पुत्र कोई और नहीं बल्कि शकुनि ही थे। और अंत में शकुनि जिंदा बच गए जिसके पश्चात उन्होंने यह निश्चय किया कि वे कौरवों का विनाश कर देंगे।
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जब कौरवों में वरिष्ठ राजकुमार दुर्योधन ने यह देखा कि केवल शकुनि ही जीवित बचे हैं तो उन्होंने उसे क्षमा करते हुए अपने देश वापस लौट जाने या फिर हस्तिनापुर में ही रहकर अपना राज देखने को कहा। इसके पश्चात शकुनि ने कौरवों के बीच रहकर ही अपना निश्चय पूर्ण करने का निर्णय लिया।
वह जुए का खेल शकुनि के बदले का ही हिस्सा था
अपने पिता की मृत्यु के पश्चात शकुनि ने उनकी कुछ हड्डियां अपने पास रख लीं जिनका प्रयोग कर उसने जुआ खेलने के लिए पासे बनाए थे। शकुनि की इस चाल के पीछे सिर्फ पांडवों का ही नहीं बल्कि कौरवों का भी भयंकर विनाश छिपा था क्योंकि शकुनि जानता था कि पांडवों व कौरवों में दूरियां और बढ़ाने से उसे अत्यंत लाभ हो सकता है। यदि दोनों ओर युद्ध छिड़ जाए तो कौरवों की बड़ी मात्रा में हार हो सकती है। और शकुनि का यह निर्दयी इरादा काफी हद तक सफल भी हुआ।
दुर्योधन को मोहरा बनाकर खेला था शकुनि ने अपने बदले का खेल
महाराज धृतराष्ट्र की ओर से पांडवों व कौरवों में होने वाले विभाजन के बाद पांडवों को इंद्रप्रस्थ सौंपा गया था। यह एक बंजर भूमि थी लेकिन इसे भी पांडवों ने अपनी मेहनत से एक सुंदर नगरी के रूप में परिवर्तित किया था। युधिष्ठिर द्वारा किए गए राजसूय यज्ञ के दौरान दुर्योधन को यह नगरी देखने का मौका मिला।
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महल में प्रवेश करने के बाद एक विशाल कक्ष में पानी की उस भूमि को दुर्योधन ने गलती से असल भूमि समझ कर उस पर पैर रख दिया जिसकारणवश वे उस पानी में गिर गए। यह देख पांडवों की पत्नी द्रौपदी उन पर हंस पड़ीं और कहा कि ‘एक अंधे का पुत्र (महाराज धृतराष्ट्र नेत्रहीन थे) अंधा ही होता है’, यह सुन दुर्योधन बेहद क्रोधित हो उठे और द्रौपदी से इस घटना का बदला लेने की ठान ली।
और फिर हुआ बदला पूरा
दुर्योधन के मन में चल रही बदले की भावना को शकुनि ने बखूबी पहचान लिया था और इसी का फायदा उठाते हुए उसने पासों का खेल खेलने की योजना बनाई। खेल के जरिए पांडवों को मात देने के लिए शकुनि ने बड़े प्रेम भाव से सभी पांडु पुत्रों को खेलने के लिए आमंत्रित किया। और फिर शुरू हुआ दुर्योधन व युधिष्ठिर के बीच पासा फेंकने का खेल।
खेल की शुरुआत में पांडवों का उत्साह बढ़ाने के लिए शकुनि ने दुर्योधन को आरंभ में कुछ पारियों की जीत युधिष्ठिर के पक्ष में चले जाने को कहा जिस कारण पांडवों में खेल के प्रति उत्साह उत्पन्न हो सके। धीरे-धीरे खेल के उत्साह में युधिष्ठिर अपनी सारी दौलत व साम्राज्य जुए में हार गए।
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अंत में शकुनि ने युधिष्ठिर को सब कुछ एक शर्त पर वापस लौटा देने का वादा किया कि यदि वे अपने बाकी पांडव भाइयों व अपनी पत्नी द्रौपदी को दांव पर लगाएं। मजबूर होकर युधिष्ठिर ने शकुनि की बात मान ली और अंत में वे यह पारी भी हार गए। इस खेल में पांडवों व द्रौपदी का अपमान ही कुरुक्षेत्र के युद्ध का सबसे बड़ा कारण बना था।
अंत में पांडवों के हाथों हुआ शकुनि का विनाश
कुरुक्षेत्र के युद्ध में शकुनि ने दुर्योधन का साथ दिया था और युद्ध में वे खुद भी पाण्डु पुत्र सहदेव के हाथों मारे गए थे।
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