उसे पता था कि अब वह ज्यादा दिनों का मेहमान नहीं है. कभी भी किसी भी वक्त उसके प्राण अलविदा कह सकते हैं. हैरानी होती थी कि उसे मरने का डर नहीं बल्कि एक अजीब सा उत्साह है. उसकी मौत दिनों-दिन उसके करीब आ रही थी और वह अपने मरने की तैयारियों में जुटा था. उसने अपने लिए सारा सामान जमा कर लिया था. वह कौन से कपड़े पहनकर मरेगा, किस जगह और किस कॉफिन में उसे दफनाया जाएगा, आदि जैसी तैयारियां वो खुद कर रहा था. उसे ल्यूकेमिया यानि रक्त का कैंसर था तथा डॉक्टर उसे आगाह कर चुके थे कि वह आने वाला क्रिसमस नहीं देख पाएगा. लेकिन अचानक कुछ ऐसा हुआ कि मौत उसका रास्ता छोड़कर चली गई…
ये कहानी है 14 साल के डेरिन ब्लैकवेल की जिसे मात्र 10 वर्ष की उम्र में ही ल्यूकेमिया जैसी घातक बीमारी ने अपना शिकार बना लिया था. इतना ही नहीं लांगरहैंस सेल सरकोमा नाम की जिस बीमारी को अत्याधिक दुर्लभ की श्रेणी में रखा जाता है, उसने भी डेरिन को अपनी चपेट में ले लिया. डॉक्टरों ने डेरिन को बोन मैरो देने की भी कोशिश की लेकिन यह असफल रहा वरन् इस कोशिश के चलते डेरिन के शरीर में घातक संक्रमण तक फैल गया. लेकिन फिर भी डेरिन के जीने का उत्साह कम नहीं हुआ, वह दिसंबर में अपना ‘आखिरी’ क्रिसमस मनाने घर आ गया और जनवरी के दूसरे सप्ताह में उसने अपने शरीर पर लगी सभी पट्टियां खोल दी तथा एक्स-रे के दौरान डॉक्टरों ने पाया कि उसकी हड्डिया ठीक हो रही हैं. इसे कहते हैं जाको राखे साइयां मार सके ना कोय, देखिए जिसे डॉक्टरों ने यह कह दिया था कि ‘बस अब कुछ दिन और’, वह पिछले 4 सालों से जिंदा है और धीरे-धीरे ठीक हो रहा है.
मासूम डेरिन की यह कहानी अचंभित करने वाली है, हो भी क्यों ना क्योंकि जिसे डॉक्टर तक जवाब दे चुके थे, जिसके घरवाले हार मानकर बैठ गए थे, यहां तक कि जो स्वयं अपने मरने की तैयारियों में जुट गया था उसका जीवित रहना बेहद चौंकाने वाला ही तो है.
मासूम बच्चे की यह हकीकत बहुत से लोगों को प्रभावित कर सकती है, कोई इसे चमत्कार कह सकता है तो किसी के लिए इस घटना का संबंध पारलौकिक ताकतों के साथ हो सकता है. लेकिन डेरिन का उत्साह और जीने की ललक क्या किसी को यह सोचने के लिए मजबूर नहीं करती कि जब मरना तो सभी को एक दिन है तो क्यों ना शान से जिया जाए. क्यों घुट-घुटकर जिन्दगी बिताई जाए क्योंकि क्या पता कौन सा पल आखिरी हो जाए. जिसने जन्म लिया है उसे एक ना एक दिन तो जाना ही है फिर मरने से डर कैसा.
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